ईर्ष्या


ईर्ष्या मन मत पालिए,

बहुत बुरा यह रोग।

देख किसी के प्रगति को,

जलते है क्यों लोग।।


जलना है तो यूं जलो,

जैसे जलते दीप ।

हरते हैं वो तिमिर को,

जग को करे प्रदीप ।।


स्पर्धा गर हो स्वस्थ तो,

उन्नति करे समाज ।

ईर्ष्या कर तुम क्यों जले,

इससे आओ बाज।।


सहकर्मी में ही जलन,

और जले ना  कोय ।

संगी आगे जो बढ़े,

फूट-फूट कर रोय ।।


निज कर्मो को छोड़कर,

रोज लगाये दांव ।

जो इनसे आगे बढ़े,

खींचे उसके पांव ।।


इन्द्रासन क्यों डोलता,

जब तप करता कोय ।

घिरे रहे वो अप्सरा,

ईर्ष्या कर क्या होय ।।


✒ © विनय कुमार बुद्ध

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16 टिप्पणियाँ

  1. एकदम सही बात कही है कवि महोदय ने।

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  2. यथार्थ को बतलाते ,समझाते दोहे।आज मानव का मानव से अलगाव का मूल कारण तो ईर्ष्या ही है।🙏🌹🙏

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  3. सही मे सर, बर्तमान यही समाज की ज्यादातर लोगो की सोच है और हमे यह बदलना है।

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  4. सामाजिक हित के मद्दे पर आपकी कलम हमेशा धारदार बनकर चलता रहे।बहुत ही अच्छा लगता है।आपको ह्रदय से बधाई।🙏🙏

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