बूढ़ा-बुढ़िया


बेटी तो ससुराल की,

पूत गए परदेस ।

घर में बस दोनों बचे,

बूढ़ा-बुढ़िया शेष ।।


टुकुर-टुकुर दोनों तके,

नैन बहाये नीर ।

अपने ही जब घाव दे,

किसे सुनाये पीर ।।


इक दूजे के पोछते,

आँसू बारम्बार ।

भाग्य-रेख में क्या लिखा,

करता यही विचार ।।

✒️ विनय कुमार बुद्ध



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24 टिप्पणियाँ

  1. आज के पढ़े लिखे व समृद्ध समाज की कटु सच्चाई।

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  2. वर्तमान जीवन की हकीकत है। हम इंसान अपने जीवन की अंतिम परिणाम को जानने के बाद भी हजार गलतियां कर रहे हैं।

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  3. बहुत ही सुंदर भाव एव रचना

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  4. ज़िंदगी की सच्चाई को वयां करती है यह कविता

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