मोर पंख सिर सोहते,
सुंदर रूप अनूप ।
बाल सखा सँग खेलते,
गिरधर बाल-स्वरूप ।।
मुरली की धुन छेड़ के,
गैया पास बुलाय ।
दौड़ी आई गोपिका,
मंद-मंद मुस्काय ।।
माखन की चोरी करे,
बाल सखा सब गोप।
एक अकेले कृष्ण पर,
मढ़ते सब आरोप।।
मात यशोदा खीझ कर,
लिए लुकाठी धाय ।
कान्हा झट से भाग कर,
नंद गोद छुप जाय ।।
सूर नहीं जो कर सकूं,
वर्णन बाल-स्वरूप ।
कृपा भई जस श्याम की,
लिखा उसी अनुरूप ।।
विनय सहित अर्पण तुझे,
शब्दों के दो फूल ।
कवि बनने की राह में,
क्षमा करो सब भूल।।
✒ विनय कुमार बुद्ध
7 टिप्पणियाँ
अतिसुन्दर कविता सर जी!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी
हटाएंBhut hi sunder line sir��
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंअति सूंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंअति उत्तम रचना, बाल्यकाल की सुन्दर प्रस्तुति
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