वृक्ष की याचना (लघुकथा)

 

       


    एक लकड़हारा घने जंगल के बीच चोरी-चोरी पेड़ काट रहा है.....खटाक......खटाक...... । कुल्हाड़ी के लगातार वार से पेड़ जख्मी होता जा रहा है। उसके जख्म से सफेद श्राव होने लगता है। पता नहीं आँसू हैं या श्वेत रक्तकण ? जब पेड़ कुल्हाड़ी के लगातार वार से कटकर गिरने को होता है तो उसके याचना -स्वर फूट पड़ते हैं- "प्रिय मित्र ! तुम मुझे क्यों काट रहे हो ?" 

जवाब मिलता है- "मैं तुम्हें बेचकर अपने बाल-बच्चों का भरण-पोषण करूँगा ।" 

वृक्ष- "जीविकोपार्जन के और भी तो तरीके हैं मित्र । मैं तो तुम्हारा अभिन्न मित्र हूँ । तुम मुझ पर नहीं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हो।"

        फिर कुल्हाड़ी का एक जोरदार प्रहार होता है और दरख़्त घहराकर जमींदोज हो जाता है ।

        गिरते-गिरते वृक्ष से एक अत्यंत करुण याचना सुनाई पड़ती है- "मेरे दोस्त ! मैं तो तुम्हारे लिए ही बना हूँ । तुम मेरे तन से कुछ भी बनवा सकते हो, यथा- टेबल, खिड़की, दरवाजे, पलंग इत्यादि ।  मित्र ! एक गुजारिश है, कभी 'कुर्सी' मत बनवाना, बस 'कुर्सी' मत बनवाना.  

                                                                                                        - विनय कुमार बुद्ध


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10 टिप्पणियाँ

  1. अतिसुन्दर लघु कथा आप की रचनाये अति सराहनीय होती है सर


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  2. बहुत ही सुंदर रचना और एक अच्छा संदेश भी।

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